न जानें क्यों रह-रहकर, बचपन की याद सताती है।
कितना जीवन हुआ अकेला, अक्सर यह बतलाती है।।
एक दौर था, सभी साथ थे, हंसी-ठिठोली होती थी।
अब तो त्योहारों पर भी वो टोली न जुट पाती है।।
लगता है वो दौर भला था, यारों जब हम बच्चे थे।
रिश्ते थे मजबूत भले, घर-द्वार हमारे कच्चे थे।।
अब महलों जैसे घर में भी, घुटता है पल-पल जीवन।
इससे तो कच्ची दीवारों, पर वे छप्पर अच्छे थे।।
आंखों में जो ख्वाब सजे थे, न जाने कब टूट गए।
बागी हुईं हस्त रेखाएं, और सितारे रूठ गए।।
दो रोटी की मजबूरी ने, यूं अपनों से दूर किया।
घर-आंगन, गलियां, चौबारे, पग-पगदंडी छूट गए।
पलकों तले दबाकर आंसू, मन ही मन में रोए हैं।
हमीं जानते हैं कितनी, रातों को हम ना सोए हैं।।
जीवन को फूलों जैसा, महकाने की हसरत खातिर।
खुद की राहों में खुद ही, लगता है कांटे बोए हैं।।
-विपिन कुमार शर्मा