बहुत ही याद आते हैं, जो बंधन तोड़ आये हम।
वो गलियां और चौबारे कि, जिनको छोड़ आये हम।।
वो मिट्टी की दरों-दीवार, पौधों से भरे आंगन।
जहन में अब भी जिंदा हैं, कभी गुजरा जहाँ बचपन।।
भले ही जेब खाली थीं, था खुशियों से भरा दामन
अकेलापन कभी न था, सभी थे साथ में परिजन।।
कि दो रोटी की खातिर जिनसे मुंह को मोड़ आये हम।
बहुत ही याद आते हैं, कि जिनको छोड़ आये हम।।
कहानी राजा-रानी की हमें दादी सुनाती थीं।
छतों पर लेटते थे तब सुहानी नींद आती थी।।
कभी थे डांटते पापा-कभी मम्मी जगाती थीं।
मगर, हमको हमेशा, सूर्य की किरणें उठाती थीं।।
वो ऐसे नेह के बंधन कि जिनको तोड़ आये हम।
बहुत ही याद आते हैं, कि जिनको छोड़ आये हम।।
वो गुजरा दौर अब के दौर से काफी सुहाना था।
मुहल्ले में सभी अपने थे, ना कोई बेगाना था।।
सभी को हक था, हमको डांटने का, कुछ भी कहने का।
बड़ा सौभाग्यशाली था, वो पल, गांवों में रहने का।।
कि कुछ ख्वाबों को पाने में, नहीं कुछ जोड़ पाए हम।
बहुत ही याद आते हैं, कि जिनको छोड़ आये हम।।
-विपिन कुमार शर्मा
रामपुर